मेरी पिछली पोस्ट पर बहुत से मित्रों का कहना था कि मुझे हिंदी में लिखना चाहिए। मित्रों की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैंने निर्णय लिया कि इस श्रृंखला की समापन किस्त को मातृ भाषा मे लिखा जाय। आप सबके आदेश को सिर माथे लगाते हुए इस बार हिंदी में आपके समक्ष प्रस्तुत हूँ।
समाचार पत्रों और थोड़ी बहुत टी वी की खबरों से ये पता चल रहा था कि अधिकतर निजी अस्पतालों ने अपनी सेवाएं बन्द कर दी हैं और सरकारी अस्पताल केवल covid19 के मरीज ही देख रहे हैं। ऐसे में एक भय हमेशा बना रहता था कि अगर कोई आकस्मिक जरूरत आ गयी तो क्या होगा? और ये भय केवल हम बुजुर्गों का ही नही था बल्कि देश की आम जनता का था। इसका जहाँ नकारात्मक परिणाम हो रहा था वहीं इसके सकारात्मक पहलू भी थे। छोटी छोटी तकलीफ में भी जो लोगों को डॉक्टर के पास भागने की आदत थी वो कम हुई। ये बड़े आश्चर्य की बात थी कि जो अस्पताल मरीजों से भरे रहते थे वो खाली हो गए थे। आखिर वो सारे मरीज गए कहाँ। श्मशान घाट वालों का भी कहना था कि शवों की आवक पहले की अपेक्षा 35 प्रतिशत रह गयी है। सबसे बड़ी बात ये थी कि कोरोना का ये भय पूरे विश्व मे लोगों पर तारी था। यूरोप और अमेरिका जैसे देशों ने लोगों के मानस पटल पर इसके प्रभावों का अध्ययन शुरू किया तो आश्चर्य जनक तथ्यों से सामना हुआ। अकेले अमेरिका में 60 प्रतिशत लोग एंग्जायटी डिसऑर्डर के शिकार थे साथ ही डिप्रेशन जैसी अन्य मानसिक बीमारियां भी चारो तरफ दिखाई पड़ रही थीं। हमारे देश मे भी लाखों लाख युवा नौकरियों से निकाल दिए गए थे जिसके असर उनके मानस पर पड़ना स्वाभाविक था। ये वो वक्त था जब दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया कि इस समस्या से निपटने में योग और ध्यान ही सबसे कारगर उपाय है। चूंकि हम लोग नियमित रूप से योग और प्राणायाम कर रहे थे और मैं तो प्रतिदिन आनापान सती ध्यान योग का भी अभ्यास कर रहा था तो उस सीमा तक हम लोग एंग्जायटी की जद में नही आये थे और प्राणायाम ने हमें इतने खराब मौसम में भी सर्दी जुकाम बुखार से दूर रखा जिसके लिए हम दोनों सदा ही सुबह उठते ही परमात्मा का धन्यवाद करना नही भूलते थे। किंतु सब इतने भाग्यशाली नही थे, विशेषकर हमारे मजदूर भाई जो रोजगार की तलाश में अपने घरों से हजारों किलोमीटर दूर थे। जिन फैक्ट्रियों में वो काम कर रहे थे वो बन्द थीं और मालिकों ने वेतन देने से इनकार कर दिया था। मकान मालिक किराया देने या घर खाली करने का दबाव बना रहे थे। राज्य सरकारों ने इस सबसे आंख मूद ली थी ऊपर से कोरोना हो जाने पर गुमनाम मौत ने उनके मन मे इतना खौफ भर दिया कि वे पैदल ही अपने गांवों की ओर निकल पड़े। यहां राजनीति का सबसे गंदा चेहरा भी देखने को मिला कि राज्य सरकारों ने इस पलायन को रोकने की बजाय इसे एक प्रकार से प्रोत्साहित ही किया और लाखों मजदूर गांवों की ओर चल पड़े। 1947 जैसा दृश्य था। हजारों स्वयंसेवी संस्थाओं ने इनके लिए जगह जगह खाने पीने की व्यवस्था की, उनके अपने राज्यों की सरकारें भी आगे आईं कि उन्हें उनके गंतव्य तक पहुंचाया जाए।
इसी प्रकार आवश्यक वस्तुओं का भी धीरे धीरे अभाव सा दिखने लगा था या यूं कहें कि अब स्थिति ये आ गयी थी कि जो भी ब्रांड उपलब्ध था उसी से काम चलाना था। अब आपकी पसंद नापसंद का कोई मायने नही रह गया था। इस बात से ये भी साबित हुआ कि जीवन मे कोई फर्क नही पड़ता कि आप किस साबुन से नहा रहे है और कौन सा शैम्पू लगा रहे हैं और ये सब मन के भ्रम ही थे। पर अगर इसकी तह में जाएं तो सच ये था कि कोरोना के भय से कल कारखाने बन्द हो गए थे तो उत्पादन लगभग ठप पड़ गया था। इसके अनेक दुष्परिणाम तत्काल दिखाई पड़ने लगे। सरकार की सारी गाइड लाइन्स को दरकिनार करते हुए निजी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को या तो निकालना शुरू कर दिया या उनका वेतन आधा कर दिया या कहीं कहीं तो रोक ही दिया। इससे समाज में भीतर ही भीतर एक वर्ग पैदा हो रहा था जो अब इस लॉक डाउन के विरोध में अपनी आवाज दबे ढके उठाने लगा।
सामाजिक दूरी और घर से न निकलने का भी लोगों के मानस पर बहुत बुरा असर पड़ रहा था। भय इतना व्याप्त था कि जिस पड़ोसी के घर दिन में एक बार हमारी बैठकी हो ही जाती थी उनके घर हम लोग अभी तक नही गए हैं। पत्नी का सामान्य दिनों में अपनी दोस्तों के साथ तीन चार घंटे बैठना ही सबसे बड़ा शगल था जो कि इन हालातों में संभव नही रह गया था। इन्ही दिनों वीडियो कॉलिंग हम लोगों का सहारा बनी। बच्चे जब वीडियो पर हाल चाल पूछते थे तो आंखों से आंसू रोकना मुश्किल हो जाता था। ये आंसू खुशी के थे या गम के ये समझ पाना मुश्किल था पर ये मन को हल्का जरूर कर जाते थे।
गिरती अर्थ व्यवस्था, कमतर होते रोजगार, दैनंदिन की कमाई से घर चलाने वालों की कतार पुकार ने सरकार को ये सोचने पर विवश कर दिया कि अब लॉक डाउन को लंबे समय तक नही खींचा जा सकता। हमारे प्रधानमंत्री लगातार परिस्थितियों पर नजर रखे हुए थे और सभी से लगातार सलाह मशविरा कर रहे थे। हम लोग भी अब कुछ छूट की उम्मीद कर रहे थे। अंततः तमाम बंदिशों के साथ अनलॉक 1 शुरू हुआ और ये उम्मीद बंधी कि इस एक अदृश्य से राक्षस, जिसने सारी मानवता को बंधक बना लिया था, से मुक्ति का मार्ग मिलेगा।
इस संस्मरण के लिखे जाने तक जन जीवन पटरी पर आना शुरू हो गया है। यद्यपि अभी वायरस से संक्रमित होने की गति पर अंकुश नही लगा है तथापि अब अधिकतर साधारण संक्रमित लोगों को उनके घर मे ही क्वारंटाइन किया जा रहा है तो सहज रूप से स्वस्थ होने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है और अस्पताल जाने का भय भी कम हुआ है। मैं कह सकता हूँ कि WHO को इस पर पूर्व में ही सोचना चाहिए था। अब तो रूस ने वैक्सीन बनाने का दावा भी कर दिया है और पहली खुराक रूस के राष्ट्रपति की बेटी को देकर शुरआत कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दो तीन महीनों में स्थिति काबू में आ जायेगी।
इस प्रकार हम दोनों पति पत्नी ने ईश्वर को समर्पण करते हुए और योग प्राणायाम और आयुर्वेद की अपनी बहुमूल्य धरोहर से अपने शरीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रहा। सरकार द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन किया। कभी किसी चीज की कमी को लेकर कभी कोई तकरार नही की और प्रेम के साथ इस कठिन समय को पार किया। अगर तकलीफ हुई तो बहुत कुछ हासिल भी हुआ। पढ़ने और ध्यान के लिए पूरा वक्त मिला जो अभी भी बदस्तूर जारी है। इस दौरान जिन मित्रों, साथियों रिश्तेदारों ने फोन के माध्यम से, या व्यक्तिगत रूप से दवा पहुंचा कर हमारी हौसला अफजाई की उन सब को हम दोनों अपना प्रेमपूर्ण आभार व्यक्त करते हैं और सादर नमन करते हैं।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥ ………..……………………………..शरद कबीर